मछली के विभिन्न प्रकार


      """"""""" मछली के विभिन्न प्रकार""""""""""
       
              मछली पालन की प्रमुख नस्ल 


मत्स्य पालन के लिए अच्छी नस्ल में रोहू, सिल्वर कार्प, कतला, म्रगल, ग्रास कार्प और काॅमन कार्प आदि नस्लें होती है और आपको मत्स्य पालन के लिए यही नस्लें खरीदनी होगी। साथी ही कुछ समुद्री उच्च नस्ल की मछली जैसे Pangasius जेसी मछली भी पाल का किसान लाखो करोड़ों रुपए कमा रहे है।

 रोहू मछली  :- 

यह उत्तर भारत की नदियाँ, झीलें, तालाब, सामान्य रूप से पायी जाने वाली मछली है। यह लगभग 3 से 3.5 फुट लंबा होता है।

(2) यह मांसाहारी मछली है जो अन्य मछलियों को चौपट करती है। साथी कीड़े मकोड़े खाती हे 

(3) यह पृष्ठ भाग में हरापन के लिए कुछ काले रंग की होती है। इसके शल्कों के ऊपर लाल रंग की झलक दिखने से ही 'रोह' कहते हैं।

(4) सिर ऊपर से उभरना एवं आंखों के ऊपर कुछ पिचका-सा होता है। ऊपरी जबड़े पर मुह के ऊपर दो छोटे-दाने वाले प्रवर्द्ध निकलते हैं, जिन्हें बारबेल  कहते हैं। दोनो पार्श्व-बाजुओं में क्लोम-छद या ओपरकुलम (ओपेरकुलम) होते हैं जो क्लोम (गिल्स) को पीसते हैं।

) क्लोम-छद से पहले लताओं तक दोनों पार्श्व-बाजुओं में पार्श्व रेखाएँ (पार्श्व रेखाएँ) होती हैं।

(6) अन्य मछलियों की तरह इसके भी दो-दो अंस पंख एवं श्रृंखल पंख होते हैं। इसके अलावा एक पृष्ठ, लिंग एवं पुच्छ पंख होते हैं।

(7) इनका जन्म वर्षा-ऋतु में होता है। माँ अंडे देती है जो तलहटी में जमा होते हैं। नर मछली इन अंडों पर अपना शुक्राणु गिराता है। इसे बाहरी-निषेचन कहते हैं।

(8) यह अत्यधिक आर्थिक महत्व की भोजन के उपयोग की मछली है।

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सिल्वर कार्प मछली

कार्प मछली पालन काफी लोकप्रिय है। सिल्वर कार्प मछली बहुत तेजी से बढती है, यह ताज़ा पानी में रहती है। सिल्वर कार्प मछली पालन कर आप अपनी आय को बड़ा सकते है। सिल्वर कार्प मछली को फ्लाइंग कार्प मछली के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह मछली हवा में 10 फीट ऊंची छलांग लगा सकती है। सिल्वर कार्प को अन्य कार्प मछली प्रजाति जैसे रोहू, कतला, ग्रास कार्प, आदि के साथ भी पाला जा सकता है।  (1)सिल्वर कार्प मछली का रंग चाँदी के रंग जैसा होता है, 

(2) इसका मुंह बड़ा होता है और इसके जबड़े में दाँत नही होते है। 

(3)सिल्वर कार्प मछली अपने फ़ीड के लिए फाइटोप्लेनटों का उपयोग ज्यादा मात्रा में करती है।

(4) यह मछली 6 डिग्री सेलसियस से 28 डिग्री सेलसियस के तापमान के बीच मे रहती है और इसे स्थिर/धीमी गति से बहने वाले जल में रहना अधिक पसंद है।

(5) सिल्वर कार्प मछली में काटे बहुत होते हे 

 सिल्वर कार्प मछली पालन करना बहुत लाभदायक होता है क्योंकि यह अन्य मछली प्रजातियों की तुलना में जल्दी बड़ी हो जाती है। सिल्वर कार्प मछली की लंबाई 60-100 सेमी के बीच होती है और बड़े आकार की सिल्वर कार्प मछली की लंबाई 140 सेमी तक हो सकती है  

कार्प मछली पालन करने के लाभ:

  1. सिल्वर कार्प मछली एक शाकाहारी मछली होती है इसीलिए सिल्वर कार्प मछली के फीड में ज्यादा खर्चा नहीं आता है।
  2. सिल्वर कार्प मछली कृत्रिम रूप से प्रजनन करती है इसलिए आपको इसके बीज आसानी से मिल सकते है।
  3. इसका उत्पादन करना आसान होता है और यह अन्य मछली प्रजातियों की तुलना में जल्दी बड़ी हो जाती है।
  4. सिल्वर कार्प मछली का अन्य मछली प्रजातियों के साथ पालन किया जा सकता है।
  5. सिल्वर कार्प मछली का पालन शुरुआती भी कर सकते है।

सिल्वर कार्प मछली पालन के लिए जमीन का चयन:

इस व्यवसाय से अच्छी आय पाने के लिए आपको एक अच्छे स्थल का चयन करना होगा। जब भी आप नई साइट का चयन करें तो ध्यान रखे कि आपकी साइट प्रदूषण, आवासीय व शोर क्षेत्र से दूर हो और वह पूर्ण सूर्य की उपलब्धता हो। यदि आपके पास पहले से ही तालाब मौजूद है तो आप अपने मौजूदा तालाब में भी सिल्वर कार्प का पालन कर सकते है।

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  कतला मछली

 कतला मछली (कतला कतला) एक मीठे पानी की मछली की प्रजाति है जो दक्षिण एशिया की मूल निवासी है, जो आमतौर पर नदियों और झीलों में पाई जाती है।  यह एक महत्वपूर्ण खाद्य मछली है और भारत और बांग्लादेश में जलीय कृषि प्रणालियों में व्यापक रूप से खेती की जाती है।  कतला मछली अपने हल्के, मीठे स्वाद और कोमल मांस के लिए जानी जाती है, और कई दक्षिण एशियाई व्यंजनों में एक लोकप्रिय सामग्री है। साथ ही इस मछली का आकार बड़ा भी होता है, ओर कम काटे होने के कारण इसको खाने में जायदा पसंद किया जाता है,

कतला मछली की पहचान

पहचान के लक्षण

शरीर गहरा, उत्कृष्ट सिर, पेट की अपेक्षा पीठ पर अधिक उभार, सिर बड़ा, मुंह चैड़ा तथा उपर की ओर मुड़ा हुआ, पेट ओंठ, शरीर ऊपरी ओर से धूसर तथा पाष्र्व व पेट रूपहला तथा सुनहरा, पंख काले होते हैं।

भोजन की आदत

यह मुख्यतः जल के सतह से अपना भोजन प्राप्त करती है। जन्तु प्लवक इसका प्रमुख भोजन है |  10 से 16.5 मिली मीटर की फ्राई मुख्य रूप से जन्तुप्लवक खाती है, लेकिन इसके भोजन में यदाकदा कीड़ों के लार्वे, सूक्ष्म शैवाल तथा जलीय धास पात एवं सड़ी गली वनस्पति के छाटे टुकड़ों का भी समावेश हाते है।

अधिकतम साईज

लंबाई 1.8 मीटर व वजन 60 किलो ग्राम।

परिपक्वता एवं प्रजनन

कतला मछली 3 वर्ष में लैगिकं परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। मादा मछली में मार्च माह से तथा नर में अप्रैल माह से परिपक्वता प्रारंभ होकर जून माह तक पूर्ण परिपक्व हो जाते है। यह प्राकृतिक नदीय वातावरण में प्रजनन करती है। वर्षा ऋतु इसका मुख्य प्रजनन काल है।

अंडा जनन क्षमता

इसकी अण्ड जनन क्षमता 80,000 से 1,50,000 अण्डे प्रतिकिलो ग्राम होती है, सामान्यतः कतला मछली में 1.25 लाख प्रति किलो ग्राम अण्डे देने की क्षमता होती है। कतला के अण्डे गोलाकार, पारदर्षी हल्के लाल रंग के लगभग 2 से 2.5 मि.मी. ब्यास के जा निषेचिन होने पर पानी में फलू कर 4.4 से 5 मि.मी. तक हो जाते है, हेचिंग होने पर हेचलिंग 4 से 5 मि.मी. लंबाई के पारदर्शी होते है।

आर्थिक महत्व

भारतीय प्रमुख शफर मछलियो मे कतला मछली शीध्र बढ़ने वाली मछली है, सघन मत्स्य पालन में इसका महत्वपूर्ण स्थान है, तथा प्रदेश के जलाषयो एवं छोटे तालाबों मे पालने योग्य है। एक वर्ष के पालन में यह 1 से 1.5 किलोग्राम तक वजन की हो जाती है। यह खाने में अत्यंत स्वादिष्ट तथा बाज़ारों में ऊँचे दाम पर बिकती है।

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              मृगल

भौगोलिक निवास एवं वितरण

सर्व प्रथम वैज्ञानिकों ने इस मछली को सीप्रीनस मृगाला नाम दिया इसके पश्चात् नाम बदलकर सिरहीना मृगाला नाम दिया गया। यह भारतीय मेजर कार्प की तीसरी महत्वपूर्ण मीठे पानी में पाली जाने वाली मछली है, इस मछली को पंजाब में मोरी, उतर प्रदेश व बिहार में नैनी, बंगाल, आसाम में मृगल, उड़ीसा में मिरिकली तथा आन्घ्रप्रदेष में मेरिमीन के नाम से जानतें हैं, मध्य प्रदेष एवं छत्तीसगढ़ एवं शहडोल में इसे नरेन कहते हैं।

मृगल गंगा नदी सिस्टम की नदियों व बंगाल, पंजाब, मध्यप्रदेष, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेष, आन्ध्र प्रदेष आदि की नदियों में पाई जाती है, अब यह भारत के लगभग सभी नदियो व प्रदेषो में जलाशयों एवं तालाबों में पाली जाने के कारण पाई जाती है।

पहचान के लक्षण

तुलनात्मक रूप से अन्य भारतीय कार्प मछलियों की अपेक्षा लंबा शरीर, सिर छोटा, बोथा थुंथान, मूहं गोल, अंतिम छोर पर ओंठ पतले झालरहीन रंग चमकदार चांदी सा तथा कुछ लाली लिए हुए, एक जोड़ा रोस्ट्रल बर्वेल ,(मूँछ) छोटे बच्चों की पछूं पर डायमण्ड (हीरा) आकार का गहरा धब्बा, पेक्ट्रोरल, वेंट्रल एवं एवं एनल पंखों का रंग नारंगी जिसमे काले रंग की झलक, आखों सुनहरी।

भोजन की आदत

यह एक तलवासी मछली है, तालाब की तली पर उपलब्ध जीव जन्तुओं एवं वनस्पतियों के मलवे, शैवाल तथा कीचड़ इसका प्रमुख भोजन है। वैज्ञानिक मुखर्जी तथा घोष ने (1945) में इन मछलियों के भोजन की आदतों का अध्ययन किया और पाया कि यह मिश्रित भोजी है। मृगल तथा इनके बच्चों के भोजन की आदतों में भी कोई विशेष अंतर नहीं है। जून से अक्टूबर माह में इन मछलियों के खाने में कमी आती देखी गई है।

अधिकतम साईज

लंबाई 99 से.मी. तथा वजन 12.7 कि.ग्राम, सामान्यतः एक वर्ष में 500-800 ग्राम तक वजन की हो जाती है।

परिपक्वता एवं प्रजनन

मृगल एक वर्ष में लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। इसका प्रजनन काल जुलाई से अगस्त तक रहता है। मादा की अपेक्षा नर अधिक समय तक परिपक्व बना रहता है यह प्रकृतिक नदीय वातावरण में वर्षा ऋतु में प्रजनन करती है। प्रेरित प्रजनन विधि से शीध्र प्रजनन कराया जा सकता है।

अंडा जनन क्षमता

वैज्ञानिक झीगं रन एवं अलीकुन्ही के अनुसार यह मछली प्रति किलो शरीर भार के अनुपात में 1.25 से 1. 50 लाख अण्डे देती है, जबकि चक्रवर्ती सिंग के अनुसार 2.5 किलो की मछली 4.63 लाख अण्डे देती है, सामान्य गणना के अनुसार प्रति किलो शरीर भार के अनुपात में 1.00 लाख अण्डे का आंकलन किया गया है। मृगल के अण्डे 1.5 मिली मीटर ब्यास के तथा निषेचित होने पर पानी मे फूलकर 4 मिलीमीटर ब्यास के पारदर्षी तथा भूरे रंग के होते हैं, हेचिंग अवधि 16 से 22 धंटे होती है।

आर्थिक महत्व

मृगल मछली भोजन की आदतों में विदेषी मेजर कार्प कामं न कार्प से कुछ मात्रा में प्रतियोगिता करती है, किन्तु साथ रहने के गुण होने से सधन पालन में अपना स्थान रखती है जिले के लगभग सभी जलाषयों व तालाबों में इसका पालन किया जाता है। एक वर्ष की पालन अवधि में यह 500 से 800 ग्राम वजन प्राप्त कर लेती है अन्य प्रमुख कार्प मछलियों की तरह यह भी बाज़ारों में अच्छे मूल्य पर विक्रय की जाती है। रोहू मछली की तुलना में मृगल की खाद्य रूपान्तर क्षमता तथा मूल्य कम होने के कारन आंध्र प्रदेश में सघन मत्स्य पालन में मृगल का उपयागे न कर केवल कतला प्रजाति

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 रोहू

भौगोलिक निवास एवं वितरण

सर्वप्रथम सन् 1800 में हेमिल्टन ने इसकी खोज की तथा इसका नाम साइप्रिनस डेन्टी कुलेटस रखा बाद में नाम परिवर्तित होकर रोहिता बुचनानी, पुनः बदलकर लेबियों डुममेर तथा अंत में इसका नाम करण लेबियों रोहिता दिया गया। हैमिलटन ने इस मछली को निचले बंगाल की नदियो से पकड़ा था। सन् 1925 में यह कोलकाता से अण्डमान, उड़ीसा तथा कावेरी नदी में तथा दक्षिण की अनेक नदियों एवं अन्य प्रदेश में 1944 से 1949 के मध्य ट्रांसप्लाटं की गई तथा पटना से पाचाई झील बॉम्बे में सन् 1947 में भेजी गई। यह गंगा नदी की प्रमुख मछली होने के साथ ही जोहिला, सोन नदी में भी पायी जाती है।

मीठे पानी की मछलियों में इस मछली के समान, प्रसिद्धी किसी और मछली ने नही प्राप्त की। ब्यापारिक दृष्टि में यह रोहू या रोही के नाम से जानी जाती है। इसकी प्रसिद्ध का कारण इसका स्वाद, पोषक मूलक आकार, देखने मे सुन्दर तथा छोटे बड़े पोखरों में पालने हेतु इसकी आसान उपलब्धता है।

पहचान के लक्षण

शरीर सामान्य रूप से लंबा, पेट की अपेक्षा पीठ अधिक उभारी हुई, थुंथन झुका हुआ जिसके ठीक नीचे मुंह स्थिति, आंखें बड़ी, मुंह छोटा, ओंठ मोटे एवं झालरदार, अगल-बगल तथा नीचे का रंग नीला रूपहला, प्रजनन ऋतु में प्रत्येक शल्क पर लाल निषान, आंखें लालिमा लिए हुए, लाल- गुलाबी पंख, पृष्ठ पंख में 12 से 13 रेजं (काँटे) होते हैं।

भोजन की आदत

सतही क्षत्रे के नीचे जल के स्तंभ क्षत्रे में उपलब्ध जैविक पदार्थ तथा वनस्पतियों के टुकड़े आदि इसकी मुख्य भोजन सामग्री हुआ करती है। विभिन्न वैज्ञानिको ने इसके जीवन की विभिन्न अवस्थाओ में भोजन का अध्ययन किया जिसमें के अनुसार योक समाप्त होने के बाद 5 से 13 मिलीमीटर लंबाई का लार्वा बहुत बारीक एक कोषिकीय, एल्गी खाता है तथा 10 से 15 मिली मीटर अवस्था पर क्र्रस्टेषीयन, रोटिफर, प्रोटोजोन्स एवं 15 मिलीमीटर से ऊपर तन्तुदार शैवाल (सड़ी गली वनस्पति) खाती है।

अधिकतम साईज

अधिकतम लम्बाई 1 मीटर तक तथा इसका वजन विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा निम्नानुसार बताया गया है। वैज्ञानिक होरा एवं पिल्ले के अनुसार- प्रथम वर्ष में 675 से 900 ग्राम द्वितीय वर्ष में 2 से 3 किलोग्राम, तृतीय वर्ष में 4 से 5 किलोग्राम ।

परिपक्वता एवं प्रजनन

यह द्वितीय वर्ष के अंत तक लैंगिक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है, वर्षा ऋतु इसका मुख्य प्रजनन काल है, यह प्राकृतिक नदीय परिवेष में प्रजनन करती है। यह वर्ष में केवल एक बार जून से अगस्त माह में प्रजनन करती है।

अंडा जनन क्षमता

शारीरिक डील डौल के अनुरूप इसकी अंडा जनन की क्षमता प्रति किलो शरीर भार 2.25 लाख से 2. 80 लाख तक होती है। इसके अण्डे गोल आकार के 1.5 मि.मी. ब्यास के हल्के लाल रंग के न चिपकने वाले तथा फर्टीलाइज्ड होने पर 3 मि.मी. आकार के पूर्ण पारदर्षी हो जाते है फर्टिलाईजेषन के 16-22 घंटो में हेचिंग हो जाता है। हेचिंग होने के दो दिन पश्चात् हेचिलिंग के मुहँ बन जाते है, तथा यह लार्वा पानी के वातावरण से अपना भोजन आरंभ करना प्रारंभ कर देता है।

आर्थिक महत्व

रोहू का मांस खाने में स्वादिष्ट होने के कारण खाने वालो को बहुत प्रिय है, भारतीय मेजर कार्प में रोहू सर्वाधिक बहुमूल्य मछलियों में से एक है, यह अन्य मछलियों के साथ रहने की आदी होने के कारण तालाबों एवं जलाशयों में पालने योग्य है, यह एक वर्ष की पालन अवधि में 500 ग्राम से 1 किलोग्राम तक वजन प्राप्त कर लेती है। स्वाद , सुवास, रूप व गुण सब में यह अव्वल मानी जाती है जिसके कारण बाज़ारों में यह काफी ऊँचे दामों पर प्राथमिकता में बिकती है।

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कमान कार्प


  • वैज्ञानिक नाम :- साइप्रिनस कार्पियो
  • सामान्य नाम :- कामन कार्प, सामान्य सफर,

भौगोलिक निवास एवं वितरण

काँमन कार्प मछली मूलतः चीन देष की है केस्पियन सागर के पूर्व में तुर्किस्तान तक इसका प्राकृतिक घर है। भारत वर्ष में काँमन कार्प का प्रथम पदार्पण मिरर कार्प उपजाति के रूप में सन्1930 में हुआ था, इसके नमूने श्रीलंका से प्राप्त किए गए थे। इसे लाकर प्रथमतः ऊटकमंड (उंटी) झील में रखा गया था, देखते देखते मिरर कार्प देष के पर्वतीय क्षेत्रों की एक जानी पहचानी मछली बन गई। इस मछली को भारत में लाने का उद्देष्य ऐसे क्षेत्र जहां तापक्रम बहुत निम्न होता है, वहां भोजन के लिए खाने योग्य मछली की बृद्धि के लिए लाया गया था।

काँमन कार्प की दूसरी उपजाति स्केल कार्प भारत वर्ष में पहली बार सन् 1957 में लाई गई। जब बैंकाक से कुछ नमूने प्राप्त किए गए थे परीक्षणों के आधार पर यह शीघ्र स्पष्ट हो गया कि यह एक प्रखर प्रजनक है, तथा मैदानी इलाकों में पालने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। आज स्केल कार्प देष के प्रायः प्रत्येक प्रान्तों म0प्र0 एवं शहडोल के तालाबों में पाली जा रही है।

पहचान के लक्षण

शरीर सामान्य रूप से गठित, मुंह बाहर तक आने वाला सफर के समान, संघों (टेटेकल ) की एक जोड़ी विभिन्न क्षेत्रो में वहां की भौगोलिक परिस्थितियो के आधार पर इसकी शारीरिक बनावट में थोड़ा अंतर आ गया है, अतः विष्व में विभिन्न क्षेत्रो में यह एषियन कार्प, जर्मन कार्प, यूरोपियन कार्प आदि के नाम से विख्यात है। साधारण तौर पर काँमनकार्प की निम्नलिखित तीन उपजातियाँ उपलब्ध है-

1. स्केल कार्प (साइप्रिनस काप्रियोबार कम्युनिस) इसके शरीर पर शल्कों की सजावट नियमित होती है।

2. मिरर कार्प (साइप्रिनस काप्रियोबार स्पेक्युलेरिस) इसके शरीर पर शल्कों की सजावट थोड़ी अनियमित होती है तथा शल्को का आकार कहीं बड़ा व कहीं छोटा तथा चमकीला होता है। अंगुलिका अवस्था में एक्वेरियम हेतु यह एक उपयुक्त प्रजाति है।

3. लेदर कार्प (साइप्रिनस काप्रियोबार न्युडुस) इसके शरीर पर शल्क होते ही नहीं है अर्थात् इसका शरीर एकदम चिकना होता है।

भोजन की आदत

यह एक सर्वभक्षी मछली है। काँमनकार्प मुख्यतः तालाब की तली पर उपलब्ध तलीय जीवाणुओं एवं मलवों का भक्षण करती है । फ्राय अवस्था में यह मुख्य य रूप से प्लेक्टान खाती है। कृत्रिम आहार का भी उपयोग कर लेती है।

अधिकतम साईज

भारत वर्ष में इसकी अधिकतम साईज 10 किलोग्राम तक देखी गई है। इसका सबसे बड़ा गुण यह है, कि यह एक समषीतोष्ण क्षत्रे की मछली होकर भी उन परिस्थितियों में निम्न तापक्रम के वातावरण में संतोषप्रद रूप में बढ़ती है, एक वर्ष की पालन में यह 900 ग्राम से 1400 ग्राम तक वनज की हो जाती है।

परिपक्वता एवं प्रजनन

भारत वर्ष में लाये जाने के बाद तीन वर्ष की आयु में अपने आप ही ऊंटी झील में प्रजनन किया। गर्म प्रदेशों में 3 से 6 माह में ही लैगिंक परिपक्वता प्राप्त कर लेती है। यह मछली बंघे हुए पानी जैसे- तालाबों कुंडो आदि में सुगमता से प्रजनन करती है। यह हांलाकि पूरे वर्ष प्रजनन करती है, परन्तु मुख्य रूप से वर्ष में दो बार क्रमषः जनवरी से मार्च में एवं जुलाइ्र्र से अगस्त में प्रजनन करती है, जबकि भारतीय मजे र कार्प वर्ष में केवल एक बार प्रजनन करती है। काँमन कार्प मछली अपने अण्डे मुख्यतः जलीय पौधों आदि पर जनती है, इसके अण्डे चिपकने वाले होने के कारण जल पौधो की पत्त्तियों, जड़ो आदि से चिपक जाते है, अण्डों का रंग मटमैला पीला होता है।

अंडा जनन क्षमता

काँमन कार्प मछलियों की अण्ड जनन क्षमता प्रति किलो भार अनुसार 1 से 1.5 लाख तक होती है, प्रजनन काल के लगभग एक माह पूर्व नर मादा को अलग-अलग रखने से वे प्रजनन के लिए ज्यादा प्रेरित होती है, सीमित क्षत्रे में हापा में प्रजनन कराने हेतु लंबे समय तक पृथक रखने के बाद एक साथ रखना प्रजनन के लिए प्रेरित करता है, अण्डे संग्रहण के लिए ऐसे हापो तथा तालाबों में हाइड्रीला जलीय पोधों अथवा नारियल की जटाओं का उपयोग किया जाता है।

काँमन कार्प मछलियों में निषेचन, बाहरी होता है, अण्डों के हेचिंग की अवधि पानी के तापक्रम पर निभर्र करती है, लगभग 2-6 दिन हेचिंग में लगते है तापक्रम अधिक हो तो 36 घंटों में ही हेचिंग हो जाती है। 72 घंटे में याँक सेक समाप्त होने के पश्चात सामान्य रूप से धमू ना फिरना शुरू कर पानी से अपना भाजे न लेते हैं। 5 से 10 मिलीमीटर फ्राय प्रायः जंतु प्लवक को अपना भोजन बनाती है तथा 10-20 मिलीमीटर फ्राय साइक्लोप्स, रोटीफर आदि खाती है।

आर्थिक महत्व

काँमन कार्प मछली जल में घुमिल आक्सीजन का निम्न तथा काँर्बन डाई आक्साईड की उच्च सान्द्रता अन्य कार्प मछलियों की अपेक्षा बहे तर झेल सकती है, और इसलिए मत्स्य पालन के लिए यह एक अत्यन्त ही लोकप्रिय प्रजाति है। एक वर्ष में यह औसतन 1 किलोग्राम की हो जाती है। यह आसानी से प्रजनन करती है इसलिए मत्स्य बीज की पूर्ति में विषेष महत्व है।

प्रारभ में जब यह मछली स्थानीय बाज़ारों में आई तब लागे इसे अधिक पसंद नहीं कर रहे थे, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता अब देष के सभी प्रदेशों में भोज्य य मछली के रूप में अच्छी पहचान बन गई है। काँमन कार्प मछलियों का पालन पिंजरों में भी किया जा सकता है। मौसमी तालाबों हेतु यह उपयुक्त मछली है। परन्तु गहरे बारहमासी तालाबों में आखेट भरे कठिनाई तथा नित प्रजनन के कारण अन्य मछलियों की भी बाढ़ प्रभावित करने के कारण इसका संचय करना उपयुक्त नहीं माना जाता है।

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